सोमवार, 1 मई 2017

छोटे गावों से गुजरती एक रेलगाड़ी

सफर की शुरुआत
नेहरू जी की मूर्ति, ब्यावर की नगर परिषद् की इमारत के बाहर खडी कुछ उदास सी लग रही थी. मै अपनी कॉलोनी से ब्यावर रेलवे स्टेशन के तरफ जा रहा था. मैने बहुत कम शहरों में नेहरु की मूर्तियाँ देखी है. यह दीपावली की पूर्व संध्या थी और मेरा पिछले कई साल का सपना आज पूरा होने वाला था, मतलब कि मीटर गेज लाइन की मारवाड मावली रेल गाडी से यात्रा. इस रेलगाड़ी में सफ़र करने का मौका, मैं काफी समय से तलाश रहा था और बेगम साहिबा और बेटे के छुट्टियों में उदयपुर होने से इस बार ये सुनहरा मौका मिल ही गया.

अपने घर से दूर रह कर नौकरी करने वाले मेरे जैसे लोगों के मन में त्योहारों के दिनों में अपने घर, शहर की याद अधिक तीव्रता से आती है. मुझे भी उस शाम कुछ ऐसा ही लग रहा था. पर उसी दिन ऑनलाइन शॉपिंग से 2 किताबे मंगवाई थी, ‘सौन्दर्य की नदी नर्मदा’ और ‘दर्रा दर्रा हिमालय’. यात्रा वृत्रांत की इन किताबों ने मेरे अन्दर के यात्री को और जगा दिया था.

कर्नल डिक्सन ने ब्यावर शहर 1826 में बसाया था. उस शाम भी ये क़स्बा हमेशा की तरह धुल भरा और हल्का सा सोया हुआ ही लग रहा था. दीपावली के चलते बाज़ार हरी नीली चाईनीज लाइट्स से जग मगा रहे थे. हाल में नया खुला डबल स्क्रीन वाला गोल्ड सिनेमा याद दिला रहा था कि छोटे शहर भी बड़े शहरों की चकाचौंध से अब ज्यादा दूर नही है. मारवाड़ मावली मीटर गेज ट्रेन (जो कि सवेरे 5 बजे शुरू होती थी) पकड़ने के लिए पहले मुझे ब्यावर से मारवाड़ स्टेशन पहुचना था. तो रात साढ़े नौ बजे मैं ब्यावर रेलवे स्टेशन पहुच गया और 25 रुपए का ब्यावर से मारवाड़ तक का पैसेंजर गाडी का टिकट ले कर प्लेटफार्म पहुच गया.

“यात्रीगण कृपया ध्यान दे, गाडी क्रमांक 19503 कुछ ही समय में प्लेटफार्म नंबर 1 पर आने वाली है”  इस चिरपरिचित रोमांचित कर देने वाली आवाज़ ने प्लेटफार्म पर मेरा स्वागत करा. ट्रेन के यात्रायें हमेशा से ही मुझे रोमांचित करती रही है, मन मोहती रही है.  तभी पास से आती आवाज़ ‘ हाँ भईया, ब्यावर की मशहुर तिलपट्टी ले लों’ ने मुझे याद दिला दिया कि इस शहर में भले मैं सीमेंट प्लांट की नौकरी के लिये रहता हूँ पर यह शहर दुनिया में अपने लघु उद्योग तिलपट्टी के लिए प्रसिद्ध है. थोड़ी ही देर बाद प्लेटफार्म पर आई हरिद्वार मेल अपना नाम मोदी की लहर में आकर योगा एक्सप्रेस कर चुकी थी और गाडी के अंत में लगा रेल डाक सेवा का डिब्बा जिसमें टेबल कुर्सी लगाये कुछ लोग चिठ्ठीयों पर छाप लगाये जा रहे थे, एक अलग ही अहसास दे रहा था. यह ट्रेन भी मारवाड़ तक जाती है पर मुझे तो लोकल ट्रेन से जाना था जो थोड़ी देर बाद आने वाली थी.
मैं प्लेटफार्म पर एक अकेली बेंच पर बैठ कर इस यात्रा वृतांत को लिखने के लिए चुपचाप नोट्स लिख रहा था, बिना किसी का ध्यान अपनी और आकर्षित करे. 

आज़ादी के पहले मावली मारवाड़ ट्रेन ठेठ कराची तक जाती थी. यह रेलवे लाइन अपने घाट सेक्शन के घुमाव दार ट्रेक की वजह से अपने मुसाफिरों को किसी हिमालयन रेलवे ट्रेक की याद दिला जाती है. मेरे पापा रेलवे इंजन के ड्राईवर पद से सेवा निवर्त हुए है और मुझे बताते रहे है उनके स्टीम इंजनो को इस रेल लाइन पर कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था. अपने कॉलेज के दिनों में, मैं भी इस रूट पर काफी सफर कर चुका था पर पिछले 17-18 सालों में इधर सफ़र करने का सौभाग्य  नही मिल पाया था.

                           आखिर ट्रैन आ ही गई
तो साहब थोडे इंतज़ार के बाद मेरी वाली लोकल गाडी आ ही गई. इंजन में बैठा युवा असिस्टेंट ड्राईवर पीछे गार्ड के सिग्नल देख रहा था. पूरी गाडी अनारक्षित थी और इक्का दुक्का यात्रियों को छोड़ कर करीब करीब खाली थी. 

मैने बचपन की अपनी अधिकतर रेल यात्राये बिना रिजर्वेशन के डिब्बो में ही करी है जिन्हें उस समय तृतीय श्रेणी कहा जाता था. उन सालाना रेल यात्राओ का अपना रोमांच था. कोयले के काले इंजन अपनी सुमधुर सिटी और आवाजों के साथ एक नखराली चाल से चलते थे. ट्रेन की उन बचपन की यात्राओ में हमारी कुछ खाने की और दूसरी मांगे अधिक उदारता के साथ माँ पूरी कर देती और अधिकतर माँ, पिता जी को बिना रिजर्वेशन की यात्रा करने के लिए कोसती. पापा टीटी से स्टाफ का रिफरेन्स देकर सीट का जुगाड़ करने का प्रयास करते पर सफलता कम ही मिलती. ट्रेन की खुली खिडकियों से कोयले के बारीक़ कण हमारे चेहरे को काला कर देते थे. सारी असुविधाओ के वावजूद ट्रेन के यात्रायें मुझे बहुत मज़ा देती, मुझे बाहर के बदलते लैंडस्केप को देखना एक अलग आनंद देता.

मेरी ट्रेन ने सिटी देकर अपनी चाल बढाई और मेरा सफ़र शुरू हो गया.  पहला स्टेशन अमरपुरा आया, जहां के खाली पड़े क्वार्टर और थोड़ी सी  मद्धिम लाइट्स एक अलग सूनेपन का अहसास दे रही थी. मेरे कोच में थोड़े ही सहयात्री थे. लापरवाह से लडकों का एक ग्रुप भारत न्यूजीलैंड के आखरी मैच की बातें कर रहे थे. मेरी सीट के पीछे मियां मसूर शाह बंगाली साईं बाबा  का विज्ञापन लगा हुआ था जो उनके  पिछले 35 सालों से जादू टोने का सफल इलाज़ करने का दावा कर रहा था. सेंदडा स्टेशन पर दही बड़ो की फेरी वालों ने मुझे याद दिला दिया की यहाँ के दही बड़े बहुत फेमस है. यही पर एक ट्रेन को क्रासिंग देने के हमारी ट्रेन को थोड़ी देर रोका गया, सवारी गाड़ियाँ, रेलवे की कम प्राथमिकता वाली होती है , पर हमें भी कोई जल्दी नही थी.

 मेरे सामने वाले वाले अधेड़ उम्र सहयात्री शब्द पहेली भर कर अपना टाइम पास कर रहे थे. गाडी ने अब अपने गति बड़ा ली थी पर प्रत्येक स्टेशन पर उसके रुकने की बाध्यता, उसे फिर धीमा कर देती. बस और  हवाई जहाज के इतर ट्रेन में आराम से पैर फैला कर आमने सामने बैठने के वजह से शायद सहयात्रीयों से परस्पर संवाद ज्यादा आसानी से हो जाता है. मै भी शब्द पहेली वाले भाई साहब से बात का सिलसिला शुरू करने की सोच ही रहा था कि वो अगले स्टेशन बर पर उतर ही गए. कोच में एक मुस्लिम महिला भी सफ़र भी कर रही थी जो ब्यावर से सोजत फूल ले जाकर व्यापार करती थी, जब वह सोजत में उतरी तो उसने उसकी दूसरी महिला सहयात्री, जो उससे ट्रेन में ही मिली थी, को अपना विजिटिंग कार्ड देकर फिर कभी मिलने का आमंत्रण दिया. ट्रेन में दोस्त कितनी आसानी से बन जाते है. मुझे भी कई मित्र अपनी यात्राओं के दौरान ही मिले है पर उनका जिक्र फिर कभी.

थोड़ी देर में पूरा डिब्बा खाली हो गया. बीच के आने वाले स्टेशन पूरी तरह सुनसान थे. खिड़की से ठंडी हवा शुरुआती सर्दी का अहसास करा रही थी. मैने सोचा अगर निशा और नीलांशु साथ होते तो मुझसे लड़ते कि किस ट्रेन में आप हमें लेकर आ गए. अकेली यात्रायें आपकी रचनात्मकता को बढाती है. ट्रेन ने अपनी स्पीड बढा ली, धारेश्वर नाम के आखरी स्टेशन को पार करके हम करीब 11.30 बजे मारवाड़ जंक्शन पर पहुच गये.

                               मारवाड़ जंक्शन पर 
मारवाड़ स्टेशन मुझे काफी बदला हुआ लगा. ब्रिटिश कालीन पुराने ऑफिसो के जगह नई बिल्डिंग्स ने ले ली थी. पिछले 18 सालों में मै यहाँ कभी रुका नही था. कॉलेज के दिनों में जब हमारी उदयपुर जोधपुर रेल गाडी दोपहर में 2 घंटे यहाँ  रूकती थी तब के नज़ारे बिलकुल अलग थे. आज के मारवाड़ स्टेशन को देख कर लगा जैसे उसे नया रूप मिल गया हो पर मुझे तो उसकी ब्रिटिश कालीन इमारतो वाली छवि ही ज्यादा सजीव लगती है. मेरी मावली जाने वाली ट्रेन सवेरे 5 बजे थी और अभी मुझे पूरी रात निकालनी थी. गूगल मेप ने मुझे बताया कि सबसे नजदीकी होटल स्टेशन से 2 किलोमीटर दूर है, तो मैने वहाँ जाने का सोचा, पर आधा किलोमीटर पैदल जाने के बाद ही मेरी हिम्मत जवाब दे गयी. रोड सुनसान थी और कुत्ते कभी भी मेरे पीछे पड़ सकते थे. मैने यात्रियों से भरे प्लेटफार्म पर ही रात बिताने का फैसला किया. प्लेटफार्म ज्यादा जिन्दगी से भरा हुआ था. प्लेटफार्म पर पूरी रात खुले में बिताना बहुत आराम दायक नही था, पर यात्रायें हमें यही तो सिखाती है कि कैसे प्रतिकूल परिस्थितियों में रहा जाये. टिकट काउंटर पर बेठे सरदार जी से मैने 35 रुपए का मारवाड़ से मावली का टिकट लिया और थोड़ी चाय तो थोड़े खुले आसमान के नजारों के सहारे सुबह 5  बजने का इंतज़ार करने लगा .

                             घाट सेक्शन का सफर 
मावली जाने वाली मेरी मीटर गेज की ट्रेन आखरी प्लेटफार्म पर उपेक्षित सी शायद रात भर से ही पड़ी थी.  मै भी थोड़ी देर पहले पहुच कर एक कोच में थोडा सो गया. गाड़ी में बिना गद्दी वाले लकड़ी की सीटो वाले कोच मेरी बचपन के रेल यात्राओं वाले डिब्बे जैसे ही  थे. थोड़ी देर में रेल चल पड़ी और पहला स्टेशन आया फुलाद.  यहाँ चाय की दूकान पर दिन की पहली चाय की चुस्की ली. अधेड़ ड्राईवर और उसका युवा सहायक ट्रेन का प्रेशर चेक करने में बिजी थे. फुलाद से निकलते ही ट्रेक के नजदीक लगे हुए बोर्ड ने यह घोषणा कर दी कि घाट सेक्शन स्टार्ट होने वाला है. पांच डिब्बो वाली हमारी रेलगाड़ी जैसे ही चली, डिब्बे की लाइट्स जल उठी. आगे का जंगल से गुजरता घुमावदार रास्ता खिड़की से दिखाई दे रहा था. ट्रेन ने चढाई को देखते हुए अपनी रफ़्तार बढाने का प्रयास शुरू ही किया था कि ये क्या, एक  छोटा सा धमाका ही हो गया. ड्राईवर ने ट्रेन रोक दी, गार्ड किसी अनहोनी की आशंका से पूरी गाडी को बाहर से चेक करने लगा. अंत में पता लगा कि किसी ने मजाक में पटाखा छोड़ा था. ड्राईवर ने गार्ड से बात करके फिर चढाई पर चढने की तैयारी चालू कर दी. 

जोगमंडी, काचलाबल, घोडा घाटी जैसे नाम वाले छोटे बड़े नालों को पार करते हुए ट्रेन धीरे धीरे आगे बढने लगी. बीच में बीसवी शताब्दी के शुरूआती सालों की मजबूत  इंजीनियरिंग का अहसास कराने वाले ऊँचे पुल और दो टनल आई. टनल पार करते ही देखा की बन्दर हमारी ट्रेन का ही इंतज़ार कर रहे थे. ड्राईवर ने बंदरो को कुछ खाना दे दिया. शायद ये उनका रोज़ का रूटीन था. मानव और वानरों की दोस्ती तो रामायण काल से है. गौरम घाट स्टेशन इस घाट सेक्शन के बीच का एकमात्र स्टेशन है. ट्रेन कुछ देर के लिए यहाँ रुकी. पास के कम्पार्टमेंट में बेठे ग्रामीण गौरम घाट के पास बने एक मंदिर के बाबा की बात कर रहे थे कि कैसे वो इस जंगल में भी 200 गायो  की सेवा कर रहे थे. 

धीरे धीरे दिन चढ़ने लगा था पर हवा में अभी भी गुलाबी ठंडक थी. सब कुछ सुहाना चल ही रहा था कि अचानक बेगम साहिबा मोबाइल पर प्रकट हो गई. मैने चिकनी चुपड़ी बातें करने की कोशिश करी पर उन्हें आज दीपावली के त्यौहार पर भी समय पर मेरा घर पर नही होना अखर रहा था. “आओ आप तो आराम से” के उनके सन्देश से मुझे लग गया कि घर पहुच कर मेरा अकेले मीटर गेज की ट्रेन के सफ़र का मज़ा लेने का खुमार उतरने वाला है. खैर, समझदारों ने कहा है कि हमें वर्तमान में जीना चाहिए, भविष्य की चिंता नही करनी चाहिए, तो मै फिर सफ़र का आनंद लेनें लग गया.

रेल की आवाज़ का संगीत फिर से मेरे कानो में मिठास भरने लग गया. घाट सेक्शन अब ख़त्म हो गया था. कुल मिलाकर फुलाद से खामली घाट का 16 किलोमीटर का घाट सेक्शन का रास्ता ट्रेन अंग्रेजी के वी अक्षर के आकर के ट्रेक के सहारे पहाड़ो की करीब 300 मीटर ऊंचाई चढते हुए पार करती है. जंगल खत्म होने के बाद अब बाहर का लैंडस्केप भी बदल गया था. छोटे खेत, पानी से भरे छोटे तालाब और खजूर के पेड़ अब मेरा मन बहला रहे थे. ड्रोंगो, स्पूनबिल चिड़ियाएँ, खुद पर मोहित होता मोर और तेजी से भागती नील गाय मानों मुझे यह अहसास कराने के लिए ट्रेन से दिखी कि यह एरिया  कितनी जैव विवधता से भी भरा है. देवगढ मदारिया स्टेशन पार करते ही छोटा नोटिस बोर्ड यह याद दिला रहा था कि ट्रेन वेस्टर्न रेलवे के सबसे ऊँचे पॉइंट यानी की समुद्र तल से 669 मीटर की ऊंचाई  से गुजर रही है. आगे दौला जी का खेडा स्टेशन से मैने दस रुपए के बोर ख़रीदे. रेलगाड़ी जहाँ से गुजरती है वहाँ के आस पास के एरिया के लोगो को भी अपरोक्ष रूप से रोज़गार उपलब्ध कराती चलती है. ट्रेन जिन गांवों से गुजर रही थी उन्हें दूर से देख कर मुझे लगा कि इन गांवों में जिन्दगी शहरों के कोलाहल से दूर शायद थोड़ी ज्यादा सुकून भरी होगी.

                         छोटे गांवों से गुजरती ट्रैन
कुवाथल के स्टेशन को पार करते ही ट्रेन ने कोठारी नदी को पार करा. नदी का थोडा पानी भी पूरे परिवेश को एक बेहद विहंगम दृश्य बना रहा था. पानी हर चीज़ को सुन्दर बना देता है. पूरा रास्ता अरावली के पहाड़ियों से होकर गुजर रहा था. कही भी कोई बड़े डेवलपमेंट के चिन्ह नज़र नहीं आ रहे थे. रोड हाईवे के विपरीत रेलवे ट्रैक अपने आस पास के परिवेश में ज्यादा घुसपैठ नही करते. चारभुजा रोड पर सामने से आती रेल के लिए ट्रेन को कुछ देर के लिए रोका गया तो  ये क्या, असिस्टेंट ड्राईवर स्टेशन के पास के बाज़ार ही पहुच गया और थोडा नाश्ता ले आया और फिर ड्राईवर, गार्ड और उसने मिल कर प्लेटफार्म पर ही एक नीम के पेड़ के नीचे बैठ कर दावत उड़ाई. असिस्टेंट ड्राईवर का पास के बाज़ार जाकर नाश्ता लाना इस छोटी गावों की रेल में ही संभव है. ड्राईवर और असिस्टेंट से मै पूरी यात्रा में कई बार क्रॉस हुआ और उन्हें हल्का सा पहचानने लग गया. सामान्यतया मेरी 24-25 डिब्बों वाली लम्बी ट्रेन की थर्ड एसी की यात्राओं में ड्राईवर से रूबरू हो पाना बिलकुल असंभव है. छोटी चीज़े हमें जोडती है.

आगे बढें तो ट्रेन ने फिर ब्रेक लगा दिए , पता चला आगे मानव रहित फाटक से एक ट्रेक्टर क्रॉस हो रहा था. थोड़ी देर में पहाड़ी पर नया होटल में तब्दील हुआ लावा सरदारगढ़ का किला दिखाई दिया. पुरे सफ़र में यही सबसे बड़ी बिल्डिंग मुझे नज़र आई. स्टेशन पर कोई स्टाफ नहीं था और गार्ड ही टिकट बेंच रहा था, जब तक उसने पुरे टिकट नहीं बेंचे तब तक ट्रेन स्टार्ट नही हुई. रास्ते में कई मानव रहित फाटक आए पर इस ट्रेन के स्पीड इतनी कम है कि दुर्घटना का सामान्यतया कोई खतरा नही होता. रास्ते में खेतों में काम करती महिलाये दिखी, हल्ला करते शरारती बच्चे दिखे, मुस्कराते हुए साधू दिखे, सीताफल बेचते बच्चे दिखे तो मैने मन में सोचा ये सब नज़ारे कहाँ बस और हवाई यात्राओं में देखने, महसूस करने को मिलते. जुगाली करती भैसे, पानी भरती ग्रामीण औरते और कोतुहल से ट्रेन को अपने घरों से देखते बच्चो को देखने का आनंद इस धीमी रफ़्तार ट्रेन से ही लिया जा सकता है. खेत के बाड़ो के नजदीक से गुजरती ट्रेन से एक बार तो ऐसा लगा कि यह रेलवे ट्रेक नहीं होकर कोई गाँव का कच्चा रास्ता हो.

                          सहयात्री की सही सलाह
हाँ, एक बात तो मै आपको बताना ही भूल गया. जब मै इन सारे नजारों का मज़ा ले रहा था और नोट्स ले रहा था तो पूरे सफ़र में मेरा सहयात्री मेरे कम्पार्टमेंट में बैठा जीआरपी का एक जवान था. चौकोर चहरे वाले इस पुलिस वाले में एक मित्रता का भाव था, सौम्यता थी. पुरे रास्ते हम थोड़ी बहुत गुफ्तगू करते रहे. ये सज्जन मेड़ता के रहने वाले थे, और पुलिस में आने से पहले टीचर थे. वो मुझे नोट्स डायरी में लिखते देख थोडा हैरान था और पूछने लगा की क्या मै हमेशा अपनी डायरी साथ रखता हूँ. मैने उसे बताया की नोट्स लेने का काम मै भी पहली बार कर रहा हूँ और वो भी इस लिए की मै इस रेलयात्रा का यात्रा वृत्रांत लिखने की इच्छा रखता हूँ.  उसने मेरे काम और तन्खवाह के बारे में पुछा, मैने उसकी पुलिस की जिन्दगी के बारे में पूछा. उसने मुझे मेड़ता आने का निमत्रण दिया और मैने उसे ब्यावर. अंत में उसने मुझे एक बहुत अच्छी राय दी कि अगर मेरी बेगम साहिबा मेरे देर से घर पहुचने से नाराज है तो मुझे मावली तक पूरी यात्रा करने की बजाए कांकरोली उतर जाना चाहिए. इससे मेरे दो घंटे बज जायेंगे और घर जल्दी पहुच जाऊंगा. मुझे उसकी राय बिलकुल उचित लगी और मै कांकरोली स्टेशन पर उतर गया.

तो कांकरोली स्टेशन पर उतर कर मेरी एक बेहद सुन्दर और अलग रेल यात्रा का अंत हुआ. इस यात्रा में सब चीज़े छोटी थी ट्रेन, स्टेशन, पहाड़, गाँव पर उनमे एक सूक्ष्मता और कोमलता थी, आनंद था.
उम्मीद है आपको मेरे इस पहले यात्रा वृत्रांत ने बोर नही किया होगा, आपके कमेंट्स मुझे और प्रोत्साहित करेंगे.



मेरी रेलगाड़ी 



चारभुजा रोड स्टेशन जहॉं असिस्टेंट ड्राईवर बाजार से नाश्ता लेकर आया था.

लावा सरदारगढ़ की  वीरान स्टेशन बिल्डिंग